राफेल:सन्देहास्पद सौदे के अनुत्तरित प्रश्न

राफेल:सन्देहास्पद सौदे के अनुत्तरित प्रश्न
राफेल सौदे के बारे में आरोप है कि इस मामले में राफेल बनानेवाली कंपनी डसाल्ट ने अपने विमान  बेचने के लिये, रिश्वत दी है।राफेल सौदेको लेकर, अनिल अंबानी और उनकी नयी-नयी बनी कंपनी,जो इस सौदेके कुछ ही हफ्ते पहले बनी थी,को प्रधानमंत्री नरेंद मोदीके कहने पर भारतके सार्वजनिक उपक्रम एचएएल(हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड)को सौदे से हटा कर,इस सौदे का ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट देने की बात फ्रांस में उठी थी।फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति हॉलैंड ने कहा था कि अनिल अंबानी को उक्त ठेका देने के लिये, भारतके प्रधानमंत्री ने कहा था।’
राफेल सौदे में कुछ ऐसे बिंदु हैं जो इस सौदे में घोटाले के आरोप की ओर शक की सूई ले जाते हैं।
संदेह के बिंदु तब उपजते हैं,जब नियमों का पालन किए बगैर,मान्य और स्थापित कानून तथा परम्पराओं को दरकिनार कर कोई मनमाना निर्णय ले लिया जाता है और किसी को अनुचित लाभ पहुंचाया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय में राफेल सौदे के मामले में जांच की मांग को लेकर, याचिका दायर करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के एडवोकेट,प्रशांत भूषण,पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी का कहना है कि राफेल विमान सौदेमें केंद्र सरकारने जानबूझकर अनिल अंबानी को लाभ पहुंचाने के लिये, दसॉल्ट कंपनी पर दबाव डाला।
चर्चा उन बिन्दुओं की:जिनसे,शककी गुंजाइश बनती है।
● बोफोर्स घोटाला,रक्षा सौदों में,अब तक का सबसे चर्चित घोटाला रहा है।हालांकि 1948में ही रक्षासे जुड़ा जीप घोटाला सामने आ चुका था।पर,बोफोर्स घोटालेके आरोपने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी।इस घोटालेके बाद सरकारें सतर्क हो गईं और उसके बाद आने वाली सरकारोंने रक्षा सौदों के लिए बेहद पारदर्शी प्रक्रिया और नियम बनाये,जिसके अंतर्गत सेना,रक्षा मंत्रालय,संसदीय समिति और सरकार सबकी सहमति से ही किसी प्रकार का रक्षा सौदा हो सकता है।लेकिन,मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकारने,राफेल  सम्बंधी समझौता इन नियमों और प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
● रक्षा सौदोंके प्रारंभिक नियमों और प्रक्रियाके अनुसार,रक्षा खरीद का फैसला भारतीय सेनाओं की मांग के आधार पर होता है।राफेल खरीदके मामले की शुरुआत,वायुसेना द्वारा 126विमानकी मांग से हुई थी। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकारने वायुसेनाके इसी 126विमानों की आवश्यकता के आधार पर बातचीत शुरू की थी।लेकिन,उसके बाद आनेवाली मोदी सरकार ने 126विमानों की आवश्यकता को घटाकर,मात्र 36 विमानों का सौदा फाइनल किया,यानि कि उनके मूल मांग-126लड़ाकू विमान-की उपेक्षा की गयी।
● यूपीए सरकारने,दसॉल्ट कंपनीसे वायुसेनाके लिये 126राफेल विमानोंके साथ तकनीकी हस्तांतरण -ट्रांसफर आफ टेक्नोलॉजी-की शर्त भी रखी थी,ताकि   भविष्यमें यह स्वदेश में ही बने।लेकिन,मोदी सरकारने  ट्रान्सफर ऑफ टेक्नोलॉजी की शर्त ही हटा दी।
● सरकारने सौदेमें जो बदलाव किये उन्हें, कैटेगराइजेशन कमेटी के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजा।कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजीशन कॉउंसिल में,रक्षामंत्री, वित्तमंत्री और तीनों सेनाओंके प्रमुख होते हैं,जो किसी भी प्रस्ताव परिवर्तन का परीक्षण कर उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं।लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गयी।
●इस सौदे में जो बदलाव हुआ,इसके बारेमें अंतिम समय तक फ्रांसके राष्ट्रपति,भारतके रक्षा मंत्री और वायुसेना व भारतीय रक्षा समितियों को कुछ भी पता नहीं था.
●समझौतेके ठीक पहले मार्च,2015में डसाल्ट के सीईओ एलेक्ट्रैपियर कहते हैं कि हम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड(HAL)के साथ मैन्युफैक्चरिंग का काम करने जा रहे हैं।जब पीएम मोदी इस समझौतेके लिए फ्रांस जा रहे थे तो उसके पहले विदेश सचिव, एस जयशंकर जो अब विदेश मंत्री हैं,ने अपने बयान में कहा-मोदी जी फ्रांस जा रहे हैं,वे वहां पर 126 राफेल विमान खरीद की वार्ता को आगे बढ़ाएंगे।यानि तब तक इस सौदेमें हुए परिवर्तन की कोई भनक उन्हें नहीं थी।
जिस दिन,मोदीजी फ्रांस पहुंचे उस दिन फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंड ने कहा कि, 126राफेल की डील पर हमारी बात आगे बढ़ेगी।फिर,उसी दिन अचानक 36 विमानों पर यह सौदा भारत और फ्रेंच कंपनी दसॉल्ट के बीच पूरी हो गयी।अचानक इस सौदे में,अनिल अंबानी का प्रवेश हो गया और एचएएल,जिसके साथ यह करार लगभग तय हो गया था,उसे पीछे हटा दिया गया।इस तरह,देशकी सुरक्षा एजेंसियों से लेकर रक्षा और वित्त मंत्री तथा दूसरे पक्ष को भी इस सौदा परिवर्तन की भनक तक नहीं थी।यही मुख्य आरोप है कि, यह सब,अनिल अंबानी को अनुचित लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया।
●देशकी 78 साल पुरानी सार्वजनिक उपक्रम कंपनी, एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी की कंपनी को नए सौदे में,आफसेट कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया।जबकि, अनिल अंबानी की कंपनी सौदे के मात्र दस दिन पहले बनाई गई थी,जिसका रक्षा क्षेत्रमें कोई अनुभव ही नहीं था।
● अनिल अंबानी की,रिलायंस इस सौदे में ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर शामिल हुई।इस डीलमें ऑफसेट ठेके की राशि है ₹30 हज़ार करोड़,जिसका एक बड़ा हिस्सा रिलायंस को मिलेगा।यह बात डसाल्ट और रिलायंस ने सार्वजनिक की,न कि भारत सरकार ने।  अनिल अंबानीके प्रवेश के सवाल पर सरकारने कहा कि अंबानी से पहले से बातचीत चल रही थी,लेकिन यह कंपनी तो,सौदे के मात्र दस दिन पहले ही बनी थी,फिर बातचीत किससे चल रही थी ?
●प्रधानमंत्री मोदी ने समझौते के बाद कहा था कि विमान ठीक उसी कॉन्फ़िगरेशन में आएंगे,जैसा पुराने समझौते के तहत आने वाले थे।लेकिन,नये समझौतेमें ₹670करोड़ का विमान ₹1600करोड़ से ज़्यादा कीमत का हो गया।सरकार ने अब तक इसका कोई तार्किक जवाब नहीं दिया है।
●राफेलके दाम बढ़ने घटने की बात पर सरकारने हर बार अलग-अलग तरह के बयान दिए,जो स्थिति साफ करने के बजाय,उसे उलझाते हैं।
● सबसे आपत्तिजनक और हैरान करनेवाला कदम है कि इस समझौतेसे बैंक गारंटी,संप्रभुता गारंटी और एंटी करप्शन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है।इंटीग्रिटी पैक्ट पर सहमति और हस्ताक्षर न करके देशकी संप्रभुता से भी समझौता किया गया।राफेल डील से एंटी करप्शन प्रावधानों को हटाने से भ्रष्टाचार के प्रति संदेह स्वतः उपजता है।
●रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों से यह तथ्य भी सामने आए कि रक्षा मंत्रालयके विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर बातचीत करके इस सौदेको अंतिम रूप दिया जो,सभी नियमों और प्रोसीजर सिस्टम का उल्लंघन है।
● यह भी एक तथ्य सामने आया है कि इंडियन निगोशिएटिंग टीम(ऐसे सौदों में समझौता करने वाली समिति जिसमें,सेना,रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसर रहते हैं,को इंडियन निगोशिएटिंग टीम, आईएनटी कहते हैं,यह एक औपचारिक वैधानिक प्रक्रियाका अंग होता है)ने,अपनी टिप्पणी में कहा कि यूपीए सरकार के समय की शर्तें बेहतर थीं,जिसे दरकिनार कर दिया गया।तत्कालीन रक्षा सचिव ने भी इस सौदे में पीएमओ द्वारा सीधे हस्तक्षेप किये जाने पर आपत्ति जताई थी।इसके अतिरिक्त,प्राइस निगोसिएशन कमेटी(यह भी एक औपचारिक वैधानिक प्रोसीजर के अंतर्गत दाम पर बारगेनिंग और उसे तय करने के लिये गठित होती है)के तीन विशेषज्ञों ने भी अपना तीखा विरोध जताया था कि सरकारने बेंचमार्क प्राइस जो कि पांच बिलियन यूरो था,उसे बढ़ाकर आठ बिलियन यूरो क्यों कर दिया?
● इन आपत्तियों में यह भी कहा गया था कि,नये सौदे में पिछले सौदे के मुकाबले विमानों की कीमत अधिक देनी पड़ रही है,इसलिए इसका टेंडर फिर से होना चाहिए।बिना टेंडर के गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट रूट में तभी यह समझौता हो सकता था,अगर यह उसी दाम में या उससे कम दामों में होता।लेकिन सौदेमें कीमतों में अंतर आ रहा है और वह कीमतें बढ़ रही हैं,   दोबारा टेंडर की प्रक्रिया नहीं अपनाई गई।
●जिस मामलेमें प्रधानमंत्री को अपने स्तरसे फैसला लेने का अधिकार ही नहीं था, उस संदर्भ में,उन्होंने अपने स्तर से फैसला लिया,जिसके कारण,भारत सरकार की अनुभवी कंपनी एचएएल को नुकसान पहुंचा और अनिल अंबानी की निजी कंपनी को जानबूझ कर अनुचित लाभ पहुंचाया गया।
● एक आरोप यह भी है कि अनिल अंबानी रक्षा से जुड़े किसी भी तरह का निर्माण नहीं कर सकते, इसलिए उनकी मौजूदगी एक तरह से कमीशन एजेंट के तौर पर ही देखी जाएगी।एचएएल को यह दायित्व, मेक इन इंडिया के अंतर्गत दिया जा सकता था। प्रशांत भूषण का मानना है कि कमीशन एजेंट के रूप में अनिल अंबानी की मौजूदगी की वजह से ही राफेल के दाम बढ़ाने पड़े।
● राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला गोपनीय होता है, लेकिन ऐसी कोई गोपनीयता नहीं होती जिससे रक्षा मंत्रालय और संसद की रक्षा समितियां ही अनभिज्ञ हों।
●डील से ठीक पहले फ्रांसके राष्ट्रपति हॉलैंड की प्रेमिका की फ़िल्म में अंबानी की ओर से 200करोड़ का निवेश किया गया।
● सरकार इस सौदे पर कुछ न कहने के पीछे,रक्षा मामलो में गोपनीयता का तर्क देती है।लेकिन जितनी बयानबाजियां की गईं उनसे स्पष्ट है, कि सरकारके सामने किसी सीक्रेसी एक्टको लेकर कोई बाधा नहीं है।
●फ्रांसके राष्ट्रपतिने हाल ही में कहा था कि अगर भारत सरकार चाहे तो विपक्ष को ज़रूरी सूचनाएं दे सकती है, फिर सरकार इस समझौते में क्यों सीक्रेसी एक्ट का हवाला दे रही है ?
● द हिंदू अखबार के अनुसार,एक विसंगति यह भी है कि,इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में जब पहली बार सुनवाई हुई,सरकारने बंद लिफाफे में सर्वोच्च न्यायालय को गलत जानकारी दी और इस बंद लिफाफा रिपोर्ट पर किसी के दस्तखत नहीं हैं।यह भी एक न्यायिक विडंबना है कि अदालतने बिना किसी सक्षम अधिकारी के दस्तखत के ही इस रिपोर्ट का संज्ञान ले लिया।
●कोर्टमें सरकार ने बताया कि राफेल के दाम के बारे में कैग(CAG) की रिपोर्ट आ चुकी है।यह रिपोर्ट पीएसी (संसद की लोक लेखा समिति) को भेजी जा चुकी है और उस रिपोर्ट को,पीएसी ने संसदमें पेश कर दिया है और संसदने उसे सार्वजनिक भी कर दिया है।साथ में,यह भी बताया गया कि रिपोर्टमें राफेल के मूल्य विवरण नहीं हैं।याचिकाकर्ता-यशवंत सिन्हा,अरुण शौरी और प्रशांत भूषण के अनुसार,यह बातें झूठी थीं।न तो कैगने कोई रिपोर्ट दी,न इसे पीएसी को सौंपा गया था,न इसे संसद में प्रस्तुत किया गया,न यह सार्वजनिक हुई।सरकार ने कोर्ट से कहा कि सारा निगोसिएशन,प्राइस निगोसिएशन कमेटी ने किया और सर्वसहमति से किया,जबकि खुद डिफेंस सेक्रेटरी ने पीएमओ के सीधा हस्तक्षेप पर अपनी आपत्ति जताई थी।
●एडवोकेट,प्रशांत भूषण के अनुसार,अब तक जितने रक्षा सौदे हुए,उसपर आई कैग रिपोर्टमें कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि,उनमें सौदों की प्राइसिंग डिटेल्स न दी गयी हों।दूसरी बात,कैग अगर अधूरी रिपोर्ट पेश करे तो यह भी विधि विरुद्ध है।सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के बयान के आधार पर यह भी सवाल उठे कि सरकार को पहले से कैसे पता था कि कैग रिपोर्ट में प्राइसिंग डिटेल्स नहीं होंगे?
●मीडिया रिपोर्ट आने पर सरकार ने अदालत में कहा कि ये रिपोर्ट चोरीके दस्तावेजों पर आधारित है, अतः इन पर विचार न किया जाए। अब सवाल उठता है कि अगर ये मीडिया रिपोर्ट चोरी हो गए रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों पर आधारित हैं,तो इनकी सच्चाई संदेह से परे है।अंतिम सूचना में, सरकार की ओर से कहा गया है कि दस्तावेज चोरी नहीं हुए,फोटोकॉपी चोरी हुई है.इस आधार पर भी आप यह मान सकते हैं कि ​द हिंदू में छपी एन राम की रिपोर्ट सरकारी तथ्यों पर आधारित है, न कि कल्पना या गप है।
उपरोक्त सन्देह के बिंदु अभी भी अनुत्तरित हैं,जिनका ज़बाब देश मांग रहा है।
-पंकज कुमार श्रीवास्तव

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